पुरानी कथा है, एक ऋषि थे। आश्रम में अपने शिष्यों को वे आध्यात्मिक जीवन के बारे में बताया करते थे। जब शिष्यों की शिक्षा पूरी हो जाती थी और वे अपने घरों को वापस जाने लगते थे, तो वे ऋषि से पूछते कि गुरुदक्षिणा में क्या दें? तब ऋषि कहते कि तुमने जो पाया है, दुनिया में जाकर उस पर अमल करो, अपने पैरों पर खड़े होओ, सच्चाई की कमाई खाओ और फिर एक साल बाद तुम्हारा जो दिल चाहे वह दे जाना।
शिष्य जब आश्रम छोड़कर जाते थे, तो उनमें से कोई एक पेशे में जाता था, कोई दूसरे में। अपने पेशे, अपने कामकाज से जिसे जो कमाई होती थी, उसमें से वे श्रद्धापूर्वक कुछ हिस्सा उन्हें दे दिया करते थे। एक बार गुरुकुल में एक सीधा-सादा शिष्य आया। वह साधारण गृहस्थ था। दिन भर मेहनत करके अपने परिवार का पालन- पोषण करता था। लेकिन ऋषि जब उसे पढ़ाते थे, तब उसको जो भी सबक देते, अगले दिन वह उसे जरूर पूरा करके लाता था। जो कुछ उसे सिखाया जाता था, उस पर पूरे मनोयोग से अमल करता था। जब उसकी शिक्षा पूरी हुई तो उसने भी गुरु से पूछा, दक्षिणा में क्या दूं? ऋषि ने उससे भी यही कहा कि दुनिया में जाओ, जो सीखा है, उस पर अमल करो और फिर एक साल बाद जो चाहो, वह दे जाना। गृहस्थ चला गया।
एक साल बाद वह भी गुरु के पास लौटा और श्रद्धा से बोला, दक्षिणा देने आया हूं। ऋषि उसे देख कर बड़े खुश हुए। हाल-समाचार जानने के बाद पूछा, क्या लेकर आए हो बेटा?
गृहस्थ ने दस लोगों को खड़ा कर दिया, जो उसके गांव के थे। फिर बोला, मैं गुरु दक्षिणा में ये दस नए शिष्य लाया हूं। ऋषि ने पूछा, दस लोग किसलिए? तो उसने कहा, जो शिक्षा आपने मुझे दी थी, मैंने उसे इन तक पहुंचाया। उतने से ही इनका जीवन संवर गया। अब आप गुरु दक्षिणा में इन सबको अपना शिष्य बना लें, ताकि इतने लोग और आपके बताए रास्ते पर सही तरीके से चल सकें। ऋषि बहुत खुश हुए और कहा, तुमने मुझे सबसे अच्छी गुरु दक्षिणा दी है।
हम भी जब किसी सत्संग में जाते हैं, तो समझ नहीं पाते कि हम वहां से क्या पाने आए हैं। बहुत से लोग सत्संग में इसलिए जाते हैं ताकि उनके सांसारिक कष्ट दूर हो जाएं। किसी के शरीर में कष्ट है, किसी के घर में समस्याएं चल रहीं है, कहीं पति- पत्नी की नहीं बन रही है, तो कहीं मां- बाप या भाई-भाई में झगड़े हो रहे हैं। कोई अपना बिजनेस बढ़ाने के लिए आता है, कोई संतान की कामना रखता है। हम सब सोचते है कि सत्संग में जाएंगे, किसी महापुरुष के पास जाएंगे, तो हमारी इच्छाएं पूरी हो जाएंगी। पर वहां हमें बार- बार यही समझाया जाता है कि अपने आप को जानो। हम यह सुनते हैं, बार- बार सुनते हैं। लेकिन इसका मतलब समझने की कोशिश नहीं करते। उस पर अमल नहीं करते।
बहुत से भाई- बहन दान या 'नाम' की चाहत में जाते हैं। उन्हें लगता है कि संत जी से नाम ले लिया और सारे दुखों का निवारण हो गया। लेकिन भजन या जाप के लिए वे समय नहीं निकालते। पहले की ही तरह सांसारिक भौतिक चीजों में धंसे रहते हैं।
उपर दी गई कथा में वह गृहस्थ जानता था कि उसके गुरु दूसरों में क्या बांटना चाहते हैं। साधारण जन जब सत्संग में जाते हैं तो यह नहीं जानते कि वहां संत उन्हें क्या देना चाहते हैं। वह तो उनसे केवल अपने मन की चीजें पाना चाहते हैं
Wednesday, February 10, 2010
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